जब फूलों को देखने के लिए पैसे देने होंगे


अगर एक अखबार की खबर पर यकीन करें तो आगे चलकर प्रकृति को निहारने के लिए भी पैसे देने पड़ेंगे. इस मामले में पर्यावरण और वन विभाग में मतभेद हैं. कुछ लोग पर्यावरण संरक्षण का खर्च निकालने के लिए इसे जरूरी मानते हैं तो दूसरी और फूलों की घाटियों के स्थानीय निवासियों के अधिकार की वकालत करने वाले इसके विरोध में हैं.
यह विषय केवल उन स्थानों तक ही सीमित है जहाँ गर्मियों में भी लोग घूमने जाते हैं-वह लोग जो समयाभाव और धनाभाव के कारण इन स्थानों पर नहीं जाते वह इस बहस से दूर रहना चाहें पर अगर प्रकृति को निहारने के लिए पैसे वसूलने का काम वहाँ शुरू हुआ तो वह धीरे-धीरे उन शहरों के उन स्थानों पर भी आयेगा जहाँ प्रकृति निहारने के लिए लोगों को आमंत्रित करती है. अनेक शहरों में ऐसे बाग़-बगीचे हैं जो पत्थर और कंक्रीट के बुतों के बीच अभी इसलिए अपना अस्तित्व बचाए हुए क्योंकि वहाँ शहर के लोग भी जाना इसलिए पसंद नहीं करते क्योंकि उसमें निहारने के लिए पैसे लगते हैं और अगर वहाँ भी यह काम शुरू हुआ तो लोग ज्यादा जायेंगे ताकि वहाँ से निकलकर लगों पर अपना रुत्वा जमा सके, क्योंकि मुफ्त में लोग ध्यान नहीं देते.

वैसे यह खबर मुझे हैरान करने वाले नहीं लगी. जिस तरह आम और खास आदमी ने मिलकर प्रकृति के पुत्र पेडों को काटकर उनकी जगहों पर कब्जा किया है उससे एक न एक दिन ऐसा होना ही है. इस मामले में यह कोई नहीं कह सकता की यह सब उसने किया या इसने किया. जो जगह आँगन में पेडों की थी उन पर सीमेंट और मुजायक के फर्श बिछ गए और उन्हें घर के बाहर सड़क पर जगह दी जाती तो भी ठीक था पर उसे भी हड़पने में लोग आगे हैं. मकान, दुकान और होटल के लिए प्राणवायु का सृजन करने वाले पेडों को काट दिया गया. धन चाहिऐ और किसी भी कीमत पर चाहिए.

अपने अमर होने के भ्रम में आदमी ने उन पेडों को काटा जो उससे न केवल ज्यादा उम्र तक जीते हैं बल्कि दूसरों को भी जिंदा रखते हैं. अभी तक फ्री में सब काम करते रहे इसलिए पेड़-पोधों ने वह सम्मान भी नहीं पाया जो विष वायु बिखेरने वाली मोटर साइकिल, कार, ट्रक और ट्रेक्टर पाते हैं. लोग उन्हें खरीद कर पूजा करते हैं और मिठाई बांटते हैं जो एक पल भी आदमी को सांस न दे सके. कभी कोई पेड़ लगाकर मिठाई बांटता हो यह कभी नहीं देखा. इसके अलावा कुछ बाग़ बीचे हैं जहाँ न गरीब जाता है न अमीर. आजकल कुछ व्यवासायिक केन्द्र बन गए हैं जहाँ पैसे खर्च कर आदमी जाते हैं और बाहर आकर बताते हैं की हम वहाँ गए थे. कहीं किसी ऐसे पार्क में-जहाँ पैसे न लगते हों- जाकर आदमी क्या लोगों को बता सकता है की हम फ्री में मजे लेने गए थे. कई पिकनिक के स्थान ऐसे हैं जहाँ अब लोग इसलिए नहीं जाते क्योंकि अब कुछ शहरों में व्यावसायिक पिकनिक स्थान बन गए हैं. मतलब पैसा कमाते और खर्च करते दिखो-यही आज का नियम हो गया है.

गनीमत है हमारे दर्शन ने पेड़ पोधो को पानी देने के लिए भी पूजा जैसी मान्यता दी है और आज भी शहरों में रहने वाला एक वर्ग उनकी देख भाल करता है और कम संख्या में ही सही पेड़-पोधे बचे हुए हैं, वरना तो शहरों में हरियाली का नामोनिशान तक नहीं मिलता. भौतिकता का जाल ऐसा है कि बहुत काम लोग इस बात को याद रख पाते हैं की हम जो सांस लेते हैं उसे ऑक्सीजन कहते हैं और उसका सृजन पेड़-पोधे करते हैं और जो हम गंदी वायु छोड़ते हैं उसे वह ग्रहण कर हमारा संकट टालते हैं. जहाँ पैसा लगाने की बात चल रही है वह भी कोई आदमी की नहीं बल्कि प्रकृति की स्वयं की रचना है बस उसका कैसे आर्थिक फायदा उठा जाये इसके प्रयास किये जा रहे हैं और उन्हें गलत तो तब ठहराया जाये जब आदमी इसके लिए जागरूक हो. लोहे लंगर के सामान पर सब जगह चर्चा होती है कहते हैं कि ‘मेरे पास मोबाइल है’, ‘मेरे पास कंप्यूटर है’, ‘मेरे पास मोटर साईकिल है’ और ‘मेरे पास अपना मकान है’ आदि-आदि पर यह कोई नहीं कहता की मेरे घर पर एक पेड़ है. जब हरियाली को निहारने के लिए पैसे देने होंगे तब आदमी को समझ में आएगा कि उसकी कीमत क्या है?

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